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  • कुसुमा नाइन को बिगाड़ने में माधो की माँ की रही अहम भूमिका 
  • कुसुमा जब घर से भागी तो सारा जेवरात भी अपने साथ बटोर ले गई 

Dr. Rakesh Dwivedi

(Orai), Bundelkhand


टिकरी में कुसुमा नाइन और माधो मल्लाह के घर अगल -बगल थे। दीवार से दीवार मिली हुईं थी। दोनों घरों के बीच रिश्ता भी अच्छा था। एक समय कुसुमा और माधो के पिता एक साथ खेतों से जानवरों के लिए हरियाली लेने जाते थे। कुसुमा माधो के माँ की मुंह लगी हुई थी। कभी-कभी तो वह उसके घर पर ही सो जाती थी। चौथी में कुसुमा जब विदा होकर घर आई तो वह सोने -चाँदी के गहनों से लदी थी। यह देख माधो की माँ के मन में लालच आ गया और वह कुसुमा के गहनों को पाने की चाह में तानाबाना बुनने लगी। 

उस वक्त टिकरी में सरकारी प्राइमरी स्कूल था। कुसुमा यहीं पर कक्षा पांच तक पढ़ी। माधो ने हाईस्कूल तक पढ़ाई कुठौद से की और 11वीं में दाखिला जखा के कॉलेज में लिया पर फिर पढ़ नहीं पाया। मुंह में चेचक के दाग वाला माधो शरीर से काफी हट्टा कट्टा था। दोनों परिवार पड़ोसी थे और संबंध भी बिल्कुल घर जैसे। एक समय ऐसा भी रहा कि डरु नाई और सुन्दरलाल मल्लाह एक साथ खेतों पर जानवरों के लिए हरियाली लेने जाते थे। गाँव वालों ने उन दोनों का नाम हरैरया (हरी फसल चुराने वाले) रख दिया था। दोनों लोग शातिर थे और रात में किसानों के खेत की फसल को ऊपर-ऊपर से काटका अपने जानवरों को खिलाते थे। पूरा गाँव डरु और सुंदर की इस चोरी से त्रस्त था।


कुसुमा माधो से उम्र में छोटी थी। उसका ज्यादा समय माधो की माँ के साथ बीतता। कुछ समय बाद माधो कुसुमा के प्रति  आकर्षित होने लगा। सहमति कुसुमा की ओर से भी मिली। कुसुमा जब खेतों से हरियाली लेने जाती तो माधो भी उसके साथ पीछे-पीछे जाकर मदद करता और बातें होती रहती।

दोनों का ये संबंध जब गाँव वालों की नजरों में आने लगा तो डरु ने कुरौली में केदार उर्फ रूठे के साथ 1977 (रूठे के अनुसार 1976) में शादी कर दी। डरु के मुकाबले रामेश्वर नाई ज्यादा बड़े आदमी थे। शादी में खूब जेवरात चढ़ाये गए। कुसुमा जब चौथी पर पहली बार अपने मायके आई तो वह सोने चाँदी के आभूषणों से सिर से पैर तक लदी हुई थी। यह देख माधो की माँ की नीयत खराब हो गई। उसके दिमाग में कुसुमा के आभूषण ही घूमते रहते। वह खुद चाहने लगी कि कुसुमा को लेकर माधो भाग जाए।


चौथी के बाद कुसुमा का ज्यादा समय माधो की माँ के पास बीतता। कुसुमा की माँ सावित्री ने कई बार टोका भी पर कुसुमा नहीं मानी। माधो की माँ का साथ पाकर कुसुमा का मन अस्थिर रहने लगा। उधर माधो को भी उकसाया जाने लगा कि गौना चलने के पहले ही कुसुमा को भगा ले जाया जाए।  गर्मी के दिनों की बात है। सन 1978 था। माधो ने दीवार में बाँधकर रस्सी लटका दी। आँगन में अकेले सो रही कुसुमा छत के सहारे नीचे आ गई। घर से भागते वक्त वह अपने साथ सारा जेवरात भी ले गई। इसके बाद वह जेवरात कभी ससुराल वालों तक नहीं पहुँच सका। जिन गहनों को लेकर माधो की माँ ललचा गई थी, बाद में उन्हें गोहानी से प्राप्त करने में जुट गई। विक्रम से उसकी नातेदारी थी और कुसुमा को लेकर माधो ने उसी के घर में शरण ली थी। कुछ दिनों बाद डरु किसी प्रकार कुसुमा को वापस लाया पर जेवरात नहीं मिल पाये।

  • दिल्ली पुलिस ने छापा डाल तीन को पकड़ा लेकिन माधो नहीं पकड़ा जा सका
  • डरु के पक्ष में गवाह बने टिकरी के तीनों ग्रामीणों को विक्रम ने ने मार दिया था 


Dr.Rakesh Dwivedi

(Orai), Bundelkhand

गिरोह के पास कुरौली में  रामेश्वर नाई के घर लूटपाट में जो सामान मिला था उसके समाप्त होने पर औरैया के नौरी गाँव में डकैती डाली गई। धोखे से विक्रम की गोली से कुसुमा घायल हुई थी। उसका इलाज कराने को माधो के अलावा उसका पिता सुन्दर लाल और बड़ा भाई धर्मजीत दिल्ली गए। उन्हें गाँव की ही कुंजीलाल मल्लाह के बेटे कढ़ोरे ने किराए पर कमरा दिला दिया। इनके साथ कुसुमा को देख उसका माथा ठनका। तब उसने डरु को चिट्ठी लिखकर सारी जानकारी दी थी। इसके बाद ही कुसुमा को पकड़ा गया और उसे जेल जाना पड़ा। जेल से छूटकर कुसुमा नाइन माधो के साथ गिरोह में शामिल हो गई थी।


कुसुमा की कहानी 1978 से 1980 के बीच झूलती है। जेल से छूटने के बाद कुसुमा ने बीहड़ में रहने की जिंदगी कुबूल  कर ली। इटावा जेल जाने से पहले डरु और थानाध्यक्ष ने खूब समझाया पर कुसुमा ने किसी की नहीं सुनी। उसने अपनी आँखों में मोहब्बत की पट्टीबाँध रखी थी। फिर तो वह चौखट पर लौटने लायक नहीं बची। बंदूक के साथ वह अपनी कहानियाँ बनाती रही। 24 साल बाद जाकर उसे हथियार रखना ही उचित लगा।

कुसुमा नाइन किशोरावस्था में गाँव के ही जिस माधो मल्लाह के प्रेमजाल में फँस गई थी, उसका पिता सुन्दरलाल और बड़ा भाई धर्मजीत मल्लाह तो  पहले से ही अपराध की दुनिया में थे। सुन्दरलाल के पास उस वक्त यमुना के करमुखा घाट का ठेका था। दिन में वह राहगीरों को नदी पार कराता और रात में डकैतों के गिरोह को नाव पर ढोकर उन्हें किनारे पहुंचाता। कभी-कभी वह विक्रम मल्लाह के साथ डकैती भी डालने चला जाता। 

नौरी में डकैती डालते वक्त जब कुसुमा घायल हुई तो उसे इलाज के लिए सुन्दरलाल, धर्मजीत और माधो दिल्ली ले गए। उस वक्त गाँव के ही कुंजीलाल मल्लाह का लड़का कढ़ोरे श्रीनिवासपुरी में रहकर बिजली का काम करता था। सुन्दरलाल ने उसके पास जाकर रहने की जगह मांगी। कढ़ोरे ने पास में ही किराए पर कमरा दिलाकर एक बिस्किट फैक्ट्री में काम भी दिला दिया।

एक दिन कढ़ोरे उनके कमरे में गया। वहाँ जाकर देखा कि कुसुमा भी इनके साथ में है और पैर में पट्टी बाँध रक्खी है। तब कढ़ोरे ने पूछा, कि तुम्हारे पैर में क्या हो गया है...? कुसुमा बोली, पैर में विषैला फोड़ा हो गया था। घर पर ठीक न हुआ तो पिताजी ने सुन्दर चाचा के साथ इलाज के लिए यहाँ भेज दिया। अब यहाँ आराम मिला है। कुसुमा असली बात छिपा गई। कुसुमा का जवाब सुनकर कढ़ोरे अपने कमरे चला आया। अब उसके मन में उथल-पुथल मचने लगी। 

उसके मन में प्रश्न उभरा कि सुन्दर तो मेरी जाति के हैं। उस पर पिता-पुत्र सब के सब अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इनके साथ डरु चाचा ने अपनी जवान बेटी कैसे अकेले भेज दी...? जबकि उसका जाति-बिरादरी का भी कोई संबंध नहीं है। जब मन परेशान हुआ तो उसने एक दिन डरु को चिट्ठी लिखकर पोस्ट कर दी। पत्र में कुसुमा कहाँ है...? किसके साथ है और कहाँ रह रही है...? सब बातों का जिक्र कर दिया। डरु को पत्र मिला। खुद न पढ़ पाने पर दूसरे से पढ़वाया। वही पत्र लेकर थाने गया। कोई मदद न मिली तो पत्नी से 500 रुपए लेकर दिल्ली पहुंचा। कई लोगों से पता पूछते-पूछते वहाँ भी पहुंचा, जहां सुन्दर लाल रह रहा था।

डरु ने मुंह पर साफी लपेटकर उस गली में घुस गया। आगे जाकर देखा कि कुसुमा बाहर नाली के किनारे बैठकर बर्तन धुल रही है। कुसुमा अपने पिता को नहीं पहचान पाई। उसे यहाँ तक आने का अंदाजा भी नहीं था। इसके बाद डरु ने पुलिस को बताया। थाना पुलिस ने धावा बोलकर कुसुमा, सुन्दर लाल और धर्मजीत को हिरासत  में लेकर थाने ले आई। माधो नहीं मिला। वह कमरे के बाहर था।  पुलिस ने कुसुमा से अपने पिता के साथ जाने को कहा लेकिन वह नहीं मानी। उसे नारी निकेतन भेज दिया गया। यह मामला मार्च 1980 का है।

दिल्ली पुलिस की सूचना पर बाद में औरैया पुलिस पहुँची। दोनों आरोपी पहले से कई मामलों में वांछित थे। कुसुमा को फिर समझाया गया। जिद पर अड़ी कुसुमा फिर भी नहीं मानी। तब कुसुमा सहित तीनों को इटावा जेल भेज दिया गया।

अब माधो को भनक लगी। वह सीधे विक्रम के पास पहुंचा। सारी घटना सुनकर विक्रम को भी क्रोध आया। उसने डरु को सबक सिखाने का निश्चय किया। मई 1980 में विक्रम ने गिरोह के साथ जाकर डरु और पत्नी साथ मारपीट कर डकैती डाली। पाल सरैनी के मल्लाहों से कहकर विक्रम ने कुसुमा सहित तीनों की जमानत इटावा से करवा ली। तीनों छूटकर सीधे पहले गोहनी पहुंचे और फिर यहीं से विक्रम के साथ श्रीराम-लालाराम गिरोह में जाकर शामिल हो गए। तब गिरोह में फूलन देवी भी थी।

जिन लोगों ने डरु के पक्ष में गवाही दी थी उन्हें विक्रम और उसके साथियों ने मारना शुरू कर दिया। पहले अशरफी, फिर जगमोहन और अंत में नेकसे मल्लाह को मार दिया गया। इसके बाद भयभीत होकर डरु और सावित्री ने जून 1980 में टिकरी से पलायन करने को मजबूर हुए।

  • गिरोह का सरदार बनने की चाहत में विक्रम ने मल्लाह साथियों के साथ बनाई थी योजना
  • कुसुमा ने साजिश उजागर की तो श्रीराम-लालाराम ने विक्रम और उसके मामा को मार डाला
  • बुधवार को कुसुमा नाइन का त्रयोदशी कार्यक्रम ससुराल में संपन्न


Dr. Rakesh Dwivedi

(Orai), Bundelkhand

ससुराल में तो दस्यु सुंदरी  कुसुमा नाइन बहू बनकर नहीं रह पाई थी पर उसका अगला जन्म सुधारने की कल्पना में धार्मिक परम्पराओं का पालन उसके पति की तरफ से फिर भी किया गया। बेहद क्रूर रही कुसुमा की बीहड़ कहानी कई हिस्सों में बंटी रही। केदार उर्फ रूठे से विवाह के बाद बीहड़ों में वह तीन डकैतों की प्रेमिका बनकर रही। फूलन देवी के आपराधिक जीवन की उम्र पांच वर्ष तो कुसुमा का 24 वर्ष तक रहा। प्रेम, भय और अपराध की इस कहानी में चर्चा उस साजिश की है, जिसमें विक्रम मल्लाह ने दोनों भाइयों-श्रीराम-लालाराम को मार देना चाहता था पर उस साजिश का शिकार बाद में वह खुद ही हो गया। उस दिन उसकी प्रेमिका फूलन देवी भी रक्षा नहीं कर पाई थी। अपनी ससुराल बैजामऊ के पास उस रात विक्रम और उसके मामा बारेलाल मल्लाह दोनों को मार डाला गया था।

 

चम्बल-यमुना के बीहड़ों के कटाव और घुमावदार बीहड़ और वहाँ की कटीली झाडियों में सिर्फ डकैत ही नहीं छुपते थे, उनमें साजिशें भी छुपा करती थीं। श्रीराम-लालाराम दोनों सगे भाई थे जो जाति के ठाकुर थे। बाबू गुर्जर की हत्या के बाद इस गिरोह का सरदार श्रीराम था। पहले फूलन देवी फिर कुसुमा नाइन भी इस गिरोह का हिस्सा बनी। मतलब श्रीराम-लालाराम और कुसुमा नाइन को छोड़कर सभी सदस्य मल्लाह जाति के ही थे। यही बात विक्रम मल्लाह को अखरती रहती थी। जब भी दोनों भाई कहीं चले जाते तो मौका पाकर विक्रम अपनी बिरादरी के सदस्यों में विरोध की चिंगारी भड़काता रहता। वह कहता कि गिरोह में सभी सदस्य मल्लाह जाति के हैं और गिरोह ये ठाकुर भाई मिलकर चलाते हैं। जबकि गिरोह उसके नाम से चलना चाहिए। विक्रम बहुत तेज दिमाग, शातिर और दुस्साहसी था। बीहड़ों में जातिवार की आग सबसे पहले उसके द्वारा ही भड़काई गई थी जिसके बाद बेहमई, अस्ता और रोमई  जैसे काण्ड सामने आये। इसके बाद से डकैतों को संरक्षण भी जातियों के आधार पर मिलने लगा।

यह साजिश पहली और बड़ी थी। इसकी पटकथा भी विक्रम ने मजबूती से तैयार की थी। यदि कुसुमा रणनीति के आधार पर चल पड़ती तो श्रीराम-लालाराम की जिंदगी पहले ही खत्म हो सकती थी। साजिश का एक हिस्सा कमजोर साबित होने से दांव उल्टा पड़ गया।


एक दिन श्रीराम और लालाराम अपने गाँव भाल गए हुए थे। तब विक्रम ने साफ-साफ कहा कि-अब ठाकुरों को गिरोह के मुखिया के रूप में बर्दाश्त नहीं करूंगा। मैंने योजना बनाई है कि माधो अपनी प्रेमिका कुसुमा को श्रीराम के हाथों सौंप दे। कुसुमा पहले उनका दिल जीते और अपनी बातों में फँसाये। फिर उन्हें एक दिन दारु पिलाये। नशा ज्यादा चढ़ने पर जब वे होश खो बैठें तो दोनों को मैं गोली मार दूंगा और गैंग का संचालन करूंगा।

माधो भी कुसुमा को श्रीराम को देने पर सहमत हो गया। गाँव से श्रीराम-लालाराम वापस आये। माधो ने उनके समक्ष जाकर बात रखी। प्रस्ताव से दोनों भाई खुश हुए। अब कुसुमा श्रीराम की हो गई और प्रेमिका बनकर रहने लगी। लालाराम भी उसे भौजी कहने लगा। प्यार और सम्मान पाकर कुसुमा नाइन का मन बदलने लगा। उसने एक दिन दोनों भाइयों को विक्रम और माधो की साजिश के बारे सब कुछ बता दिया। अब श्रीराम विक्रम को निपटाने की योजना में जुट गया। इसमें लालाराम और कुसुमा को भी साथ मिलाया। 

 

एक दिन श्रीराम ने विक्रम से बैजामऊ किसी काम से चलने के लिए राजी किया। यह बात 1980 की है। बैजामऊ विक्रम की ससुराल थी। तब छह लोग गिरोह से बैजामऊ के लिए चल पड़े। विक्रम के साथ उसका मामा बारेलाल और फूलन देवी तथा श्रीराम, कुसुमा और लालाराम। सभी के पास रायफल थी। गाँव करीब आया तो श्रीराम ने विक्रम को यह कहते हुए रोक दिया कि थोड़ी देर में ही मैं आता हूँ, तब तक तुम लोग यही पर रुको। यदि कोई खतरा हुआ तो फायरिंग कर दूंगा, तुम लोग दौड़ कर आ जाना। बरगद का पेड़ था। तीनों लोग श्रीराम के लौटने का वहीं इंतजार करने लगे। रात के 12 बजे रहे थे। विक्रम और बारेलाल को नींद आ गई। सुरक्षा के लिए फूलन देवी रायफल के साथ पहरा देने लगी।

करीब आधा किमी. चलने के बाद श्रीराम, कुसुमा और लालाराम झाडियों की आड़ में बैठकर योजना बनाने लगे कि आज विक्रम को कैसे मारा जाएकरीब डेढ़ घंटे बाद तीनों वहीं लौटे जहां विक्रम को छोड़कर गए थे। दोनों लोगों को सोता हुआ पाकर कुसुमा ने सबसे पहले फूलन को रायफल सहित दबोच लिया। इसके बाद गहरी नींद में सो रहे विक्रम को श्रीराम ने और बारेलाल को लालाराम ने गोलियाँ मार दी। अब अकेले बची फूलन से उसकी रायफल छीनकर उसे बेहमई भेज दिया गया। विक्रम की मौत ठौर पर मौत हुई या बाद में इसको लेकर मतभेद है। एक जानकार का कहना है कि विक्रम का इलाज दिबियापुर में कराया गया था, लेकिन वह बच नहीं पाया।

 

दोनों को गोलियाँ मारने के बाद श्रीराम-लालाराम गिरोह में लौटे। गिरोह के सदस्यों को जब पता चला कि विक्रम व बारेलाल को गोली मार दी गई है और फूलनदेवी को कहीं गायब कर दिया गया है तो मल्लाह सदस्यों में असंतोष की ज्वाला फूट पड़ी। उसी वक्त सभी मल्लाह गिरोह से अलग होकर अपना अलग गिरोह बना और मान सिंह को अपना सरदार चुन लिया। कुछ समय बाद जब फूलन किसी तरह गिरोह तक पहुँची तो गिरोह को नई ताकत के साथ तैयार कर विक्रम की मौत का बदला बेहमई काण्ड के रूप में लिया। इसके बाद बदले की भावना में अस्ता और रोमई काण्ड भी हुए।

 

बैंडिट क्वीन से सांसद बनने तक के फूलन देवी के सफर में नाग पंचमी की खास भूमिका है। इस रहस्य से आज पर्दा खुल रहा है। आज नागपंचमी है । इस त्योहार का खास हस्तक्षेप   फूलन के जीवन में रहा है। फूलन देवी नागपंचमी के दिन ही बीहड़ों में हथियार लेकर कूदी थीं....

 

80 के दशक में पुलिस के सामने सरेंडर के दौरान दस्यु सुंदरी फूलन देवी अपने गिरोह के साथ

Dr. Rakesh Dwivedi

Uttar Pradesh के जालौन जिले की कालपी तहसील के तहत एक गांव है शेखपुर गुढ़ा। यमुना नदी किनारे बसे यह गांव में निषाद जाति बाहुल्य है। उस दौर में यह  क्षेत्र शिक्षा, चिकित्सा , आवागमन और कानून व्यवस्था की मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा था, वहीं फूलन देवी के परिवार के सामने एक अलग किस्म की समस्या थी और वह थी पारिवारिक विश्वास की। फूलन का संघर्ष सबसे पहले खुद के खानदान से Start हुआ था। जमीन के विवाद में वह बीहड़ों तक पहुंच गई।

आरोप है कि खानदानी विवाद के चलते फूलन देवी के ताऊ के लड़के मइयादीन ने अपने घर डकैती डलवाकर उसमें फूलन को नामजद कराया था। यह तारीख थी 26 दिसंबर 1978, फूलन को उरई जेल में रहना पड़ा। आम चर्चा है कि फूलन देवी को अपहरण कर ले जाया गया था। जबकि इसमें सत्ययता नहीं मानी गई। फूलन के लिए विक्रम मल्लाह कोई अनजान नहीं था। वह मइयादीन का ममेरा भाई था। उसका गांव  में आना- जाना था। जेल जाने का बदला फूलन देवी हर कीमत पर लेना चाहती थी।

29 जुलाई 1979 रविवार को वह घर छोड़कर बीहड़ चली गई। उस दिन नाग पंचमी थी। इसके बाद फूलन की एक नई कहानी Start हुई। बेहमई कांड से सांसद बनने के उनके किस्से दर किस्से चर्चा में रहे। 25 जुलाई को सांसद रहते हुए नई दिल्ली में जब उनकी हत्या हुई उस दिन भी नाग पंचमी ही थी। गोली से Start हुई कहानी गोली से ही खत्म हुई।

 


जमीन का क्या है विवाद....???

शेखपुर गुढ़ा में इस परिवार के पास 60 बीघा जमीन थी। जिस पर अब मालिकाना हक मइयादीन के पास है। फूलन से विवाद का असली कारण यही बना था। यह परिवार मनफूल निषाद से शुरू हुआ। मनफूल के दो बेटे थे- किशोर निषाद और गुमान निषाद। अब किशोर निषाद के तीन लड़के हुए बिहारी निषाद( मइयादीन के पिता), देवीदीन निषाद ( फूलन देवी के पिता) और रामदीन निषाद। जब कि गुमान के दो पुत्र थे, गुरुदयाल और भवानीदीन।

जब पीढ़ियां बदली तो भूमि का वारिसाना हक भी बदलना Start हुआ। उक्त जमीन सर्वप्रथम किशोर निषाद के आधिपत्य में रही थी। उनके निधन के बाद उनके बड़े बेटे बिहारी निषाद के नाम आ गई। बिहारी परिवार में सबसे बड़े थे लिहाजा सरकारी कागजों में उनके नाम जमीन दर्ज हो गई। अब बिहारी, देवीदीन और रामदीन में से कोई जीवित नहीं है। बिहारी के पुत्र मइयादीन , रामदीन के शिवनारायण सहित फूलन व अन्य बेटियां तथा रामदीन के कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए पारिवारिक जमीन  का विवाद मइयादीन और फूलन देवी के परिवार के बीच शुरू हुआ। इसी की परिणति रही कि फूलनदेवी को बंदूक उठानी पड़ी।

 


 

मइयादीन का जब जमीन पर कब्जा हुआ तो मुकदमा दर्ज कराया गया। यह मुकदमा  इंद्रजीत और देवीदीन की ओर से इस आशय के साथ लिखाया गया कि पैतृक भूमि पर उन्हें न्याय दिलाया जाए। मुकदमेबाजी के बाद गांव में एक पंचायत हुई थी। पंचायत में शामिल पंचों ने परिवार के बीच रजामंदी कराई । उस वक्त परिवार वाले राजी होकर अलग- अलग हिस्सों में जमीन जोतने लगे। डकैत बनने के बाद फूलन ने उक्त जमीन मइयादीन से खींच ली थी। लेकिन उनकी हत्या के बाद फिर से मइयादीन का कब्जा हो गया। शेखपुर मौजा में जो साढ़े पांच बीघा जमीन है वह फूलन के भाई शिवनारायण के नाम दर्ज है। यह जमीन मंगरौल मौजे से अलग है। नदी किनारे की यह जमीन कम उपजाऊ और उबड़-खाबड़ है। 

फूलन देवी के भाई शिव नारायण

 

60 बीघा जमीन पर आधा मालिकाना हक इंद्रजीत मांगा था। पंचायत की रजामंदी के आधार पर जमीन जोती जाने लगी। वहीं बाकी बची 30 बीघा जमीन पर फूलनदेवी ने अपना हिस्सा मांगा, जिसे बिहारी और मइयादीन ने नहीं देना चाहा था। फूलन का मइयादीन से विवाद का मुख्य कारण यह जमीन ही थी।

 

फूलन को खटकती रही 15 बीघा जमीन

साढ़े पांच बीघा जमीन शेखपुर गुढ़ा मौजे में भले ही शिवनारायण ( फूलन के भाई) के नाम पर थी पर फूलनदेवी और उसकी मां मुला देवी की आंखों में मंगरौल मौजे की 15 बीघा खेती का हक खटकता रहा। अपने हिस्से की जमीन को लेकर मुलादेवी अक्सर मुद्दा उठाती रही पर उसे यह नहीं पता कि सारी जमीन पर अभी तक मालिकाना हक मइयादीन के नाम पर है।

 

 

 

  • Congress अब हर मोर्चे पर BJP को जवाब देती दिखाई दे रही है : खाबरी
  • Rahul Gandhi को पप्पू बनाने के पीछे भाजपा ने खर्च कर डाले 65 हजार करोड़
  • जगजीवनराम को अध्यक्ष बनाकर इंदिरा गांधी ने दिखाई थी दूरदर्शिता
  • अब मल्लिका अर्जुन खड़गे की है बारी : खाबरी

 

उरई स्थित अपने आवास पर बेबाकी से बातचीत करते UPCC के New President ब्रजलाल खाबरी

Dr. Rakesh Dwivedi

DS-4 (दलित, शोषित, समाज संघर्ष समिति) की नीतियों ने एक किशोर के मन में ऐसा प्रभाव छोड़ा कि उसने दलितों को न्याय दिलाने वाली विचारधारा को आलिंगनबद्ध कर लिया। समय के चक्र के साथ इस युवा मन में भी परिवर्तन आते और बढ़ते रहे। BSP के संस्थापक कांसीराम की नजरों ने उसी वक्त भांप लिया कि बृजलाल अहिरवार ( खाबरी नाम बाद में जुड़ा) नाम का यह युवा उनकी विचार धारा के मुफीद रहेगा। Delhi के बाद होशियारपुर से Start यह कहानी राजनीति का उपन्यासबन गई। कई पड़ाव आए पर यात्रा जारी रही। अब नया पड़ाव Uttar Pradesh Congress के President के रूप में आया है। अपने स्वभाव के अनुरूप ही खाबरी बोले, न डरेंगे, न दबेंगे”… BJP को उसी रूप में जवाब जिले से लेकर प्रदेश तक दिया जाएगा, जैसा जरूरी होगा। कांशीराम सिर उठाकर और मुखर होकर जीना बता गए हैं। बृजलाल खाबरी President (UPCC) से उनके उरई स्थित आवास पर www.redeyestimes (News Portal) के सीनियर जर्नलिस्ट Dr. Rakesh Dwivedi  ने उनसे बातचीत की और श्रीखाबरी ने काफी बेबाकी से हर सवाल का जवाब भी दिया....

9th Class के Student के मन में किसी को न्याय दिलाने का विचार कैसे आया?

यह बात अप्रैल 1977 की है। तब मैं कक्षा नौ में कोंच के SRP Inter College में पढ़ता था। खाबरी से कोंच तक की यात्रा साइकिल से तय होती थी। बिरादरी का एक व्यक्ति दबंग के यहां बंधुआ मजदूर था। वह घर पिता जी के पास मदद के लिए आया। मैंने दूध-रोटी खाते-खाते उसकी पूरी बात सुन ली और कहा तुम केलिया थाने पहुंचो। दो घंटे पढ़ने के बाद मैं भी थाने पहुंच गया। वहां के थानेदार ने मदद कर मेरे उत्साह को काफी बढ़ाया। यहीं से राजनीति के क्षेत्र में आने का मन बन गया।

BSP में आपका प्रभाव कैसे बढ़ाउस वक्त जिले में कई दिग्गज नेता थे

DV College में दो छात्रसंघ चुनाव लड़े पर कामयाब नहीं हुआ। इसके बाद नये नारे और सिद्धांतों को लेकर उभरी BSP से जुड़ा। जिम्मेदारी पूरी करने की भूख रहती थी तो कांशीराम की नजरों में आ गया। 1992 तक कांशीराम और बहन मायावती  अच्छी तरह से मुझे जानने लगे थे। 1995 में मुझे BSP का जालौन जिलाध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद 1999 के लोकसभा चुनाव में BSP ने प्रत्याशी घोषित कर दिया। मैं BJP के भानुप्रताप को हराकर सांसद भी बन गया। 


BSP में कई बड़े ओहदों पर रहे फिर पार्टी छोड़ने की नौबत क्यों आई...?

ये सच है कि खूब महत्व मिला। 2004 में भितरघात की वजह से चुनाव हारा तो बहन जी ने फोन पर पूछा कि तू तो जीत रहा था, फिर हारा क्यों ?  हार की वजह बताई। उन्होंने मुझे बुंदेलखंड से हटाकर गोरखपुर मंडल बतौर कोआर्डिनेटर भेज दिया।  इसके बाद  आगरा, मेरठ मण्डल की भी जिम्मेदारी मिली। एक वक्त ऐसा भी आया जब दिल्ली प्रदेश प्रभारी के अतिरिक्त, झारखंड मप्र, आंध्रा, कर्नाटक का भी प्रभारी के रूप में कामकाज देखा।

फिर वहां से हटने की नौबत भला क्यों आ गई…?

मैं जिसके साथ भी रहता हूँ तो पूरी निष्ठा के साथ रहता हूँ। मेरे विरोधियों ने जब कान भरने शुरु किए तो मेरा राजनीतिक नुकसान किया जाने लगा। यदि कोई पीठ पर छुरा भोंके तो यह मैं बर्दाश्त नहीं करता। यह मेरा स्वभाव है। इसके बाद 10 अक्टूबर 2016 को Congress ज्वाइन कर ली।

कुछ सवालों पर ब्रजलाल खाबरी अपनी हंसी को रोक नहीं पाए।

कांशीराम क्यों छाए ?  इस विषय पर बातचीत में Rahul Gandhi प्रभावित हो गए, आपने ऐसा क्या कह दिया…?

( हंसते हुए आपको कैसे पता…?) मैंने Rahul Ji से कुछ बुनियादी बातें की। कहा कि ब्राह्मण, दलित, मुस्लिम यह Congress का कभी मूल वोट था। पूरा दलित ( चौधरी) Congress के साथ था। ये क्यों था?  इसकी मूल वजह बाबू जगजीवनराम थे। Indira Ji ने उन्हें हमेशा अपने साथ बैठाया। फिर अध्यक्ष भी बनाया। इस निर्णय ने दलितों पर प्रभाव छोड़ा। जब तक आप दूसरा जगजीवन राम पैदा नहीं करोगे, Congress का भला नहीं होने वाला। फिर एक प्लम्बर का उदारण देकर भी समझाया। कहा कि, जो प्लम्बर  फिटिंग करता है, उसी को पता रहता है कि उसने कहां पर कौन सी कमी की है। इसलिए राजनीति में अनुभव को ही जब तरजीह मिलेगी तो कमी दूर होगी

इन उदाहरणों से Rahul Gandhi कितना समझे…?

बड़ी गंभीरता से सुना। कहा कि कांशीराम के साथ मिलकर उनके कार्यकर्ताओं ने जिस प्रकार से Congress को खत्म किया अब वही लोग Congress को जीवित करें। इसके बाद उन्होंने मुझे SC प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया।

बहन जी के तो आप काफी करीब रहे, क्या उन्होंने बधाई दी...?

 ( मुस्कुराते हुए ) अभी तक तो नहीं मिली। फिर भला अब उनसे बधाई क्यों मिलेगी..? मुझे भी अलग दल में आकर ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। 

कार्यकर्ता ऐसा क्यों कह रहे हैं कि Congress अब खड़ी हो जाएगी...?

Rahul Gandhi & Priyanka Gandhi 2016 से मेरी कार्यक्षमता और कार्य प्रणाली को देख रहे हैं। कुछ सोचकर ही मुझे दायित्व दिया गया है। उनके निर्णय को सही ठहराने की चुनौती अब मेरे लिए है। देखिएगा, बदली हुई Congress अब Uttar Pradesh में  दिखेगी। Congress को अब लड़ता हुआ बनाएंगे। Congress हर मोर्चे पर BJP को मुंहतोड़ जवाब देगी। न डरेंगे न दबेंगे।

BJP तो Rahul Gandhi को पप्पू कहती और मजाक बनाती है...?

BJP की यह रणनीति है। यदि वह किसी से डर रही है तो वह Rahul Gandhi ही हैं। उन्हें पप्पू साबित करने के लिए अब 65 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुका है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा से भाजपा में खलबली है। मीडिया भी उनके हाथों खेल रही है, इसलिए यात्रा को सही कवरेज नहीं हो रहा है। Rahul Gandhi के पैरों में पड़े छाले मीडिया नहीं देख पा रही है। महात्मा गांधी के बाद दूसरे राहुल हैं, जो पैदल चलकर इतनी दूरी तय करेंगे।

Social Media पर BJP काफी आगे है...कांग्रेस क्यों पिछड़ी है...?

अब हम भी मजबूत हुए हैं। Uttar Pradesh में यदि आवश्यकता हुई तो इसे और मजबूत किया जाएगा। वैसे अब BJP भागती हुई नजर आ रही है। बड़े तगड़े जवाब मिल रहे हैं। झूठ को भी उजागर किया जा रहा है।

 

Note----Dr. Rakesh Dwivedi ने करीब दो दशक तक तक अमर उजाला अखबार में डेस्क और मुरादाबाद के साथ-साथ हिन्दुस्तान अखबार में अपनी सेवाएं दी हैं। वह लंबे समय तक हिन्दुस्तान अखबार में  ब्यूरो चीफ रहे हैं...वर्तमान में वह "अरविंद माधुरी तिवारी महाविद्यालय" के प्राचार्य हैं।